शक्ति संरचना के सिद्धान्त- परम्परागत रूप से शक्ति को ऐसी क्षमता के रूप में देखा जाता है जिसके आधार पर एक पक्ष दूसरे पक्ष पर नियन्त्रण स्थापित करता है। समाज में ऐसे अनेक समूह हैं जो अपनी शक्ति द्वारा दूसरों पर नियन्त्रण रखते हैं।
इस सम्बन्ध में निम्न चार सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण हैं-
(1) वर्ग-प्रभुत्व का सिद्धान्त – यह सिद्धान्त मार्क्सवाद की देन है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि आर्थिक आधार पर समाज में दो विरोधी वर्ग मिलते हैं-
- आर्थिक रूप से प्रभावशाली-बुर्जुआ वर्ग तथा
- आर्थिक रूप से कमजोर
सर्वहारा वर्ग। इन दोनों विरोधी वर्गों में प्रारम्भिक काल से ही संघर्ष होता आया है। इस सिद्धान्त की मान्यता है कि समाज का प्रत्येक कार्य आर्थिक स्वार्थ से जुड़ा है। यहाँ तक कि माता – पिता अपनी सन्तान का पालन-पोषण व सन्तानें अपने माता-पिता की सेवा आर्थिक स्वार्थ के लिए ही करती हैं।
(2) विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार भी समाज शक्ति के आधार पर दो विशिष्ट वर्गों
- शक्तिशाली वर्ग तथा
- सामान्य वर्ग, में बँटा हुआ है। शक्तिशाली वर्ग अपनी शक्ति का प्रयोग सामान्य वर्ग पर करता है। यह वर्ग आर्थिक आधार के अलावा कुशलता, संगठन क्षमता, बुद्धिमत्ता, प्रबन्धन क्षमता, नेतृत्व क्षमता आदि आधारों पर भी विभाजित होता है। इन योग्यताओं के आधार पर प्रत्येक शासन व्यवस्था में एक ऐसा छोटा वर्ग उभरता है जो सामान्य जनों पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है। राजनेता, प्रशासक, उद्योगपति, वकील, प्रोफेसर, डाक्टर आदि इस श्रेणी में आते हैं।
(3) नारीवादी सिद्धान्त – नारीवादी सिद्धान्त की मान्यता है कि समाज में शक्ति का विभाजन लिंग के आधार पर होता है। समाज की सम्पूर्ण शक्ति पुरुष वर्ग के पास है। ये महिलाओं पर अपनी शक्ति का प्रयोग करते हैं। इसी आधार पर यूरोप में नारी मुक्ति आन्दोलन प्रारम्भ हुआ था।
यद्यपि भारतीय परम्परा में इसके विपरीत स्थिति है। यहाँ प्राचीन समय से ही महिलाओं को समाज में उच्च स्थान प्राप्त रहा है। भारतीय परम्परा नारी मुक्ति की अपेक्षा नारी स्वाधीनता की माँग का समर्थन करती है।
(4) बहुलवादी सिद्धान्त – बहुलवादी सिद्धान्त उक्त तीनों शक्ति सिद्धान्तों से भिन्न है। बहुलवादी सिद्धान्त की मान्यता है कि समाज की शक्ति किसी वर्ग विशेष में न होकर अनेक समूहों में बँटी होती है। उदार लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शान्ति के लिए सौदेबाजी चलती रहती है जिसके कारण शक्ति के आधार पर शोषण व्यवस्था नहीं होती है।
शक्ति की भारतीय अवधारणा उत्तरदायित्व की भावना पर आधारित है जिसका उपयोग सार्वजनिक हित के लिए किये जाने का प्रावधान है। इसके साथ ही यह प्रयास भी किया जाता है कि शक्तिहीन व्यक्ति शक्ति सम्पन्न होकर समाज की मुख्य धारा से जुड़े जाए।