किशोरावस्था में बालक का सर्वांगीण विकास होता है, वह शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक आदि क्षेत्रों में विकास के चर्मोत्कर्ष पर होता है। इसी समय पुरुषत्व एवं नारीत्व सम्बन्धी विशेषताएँ भी प्रकट होने लगती हैं।
इसीलिये किशोर स्वयं अपने-अपने समूहों में नियन्त्रित होते चले जाते हैं; जैसा कालसनिक ने लिखा है-“किशोरों एवं किशोरियों को अपने शरीर एवं स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता रहती है। किशोरों के लिये बलशाली, स्वस्थ्य और उत्साही बनना एवं किशोरियों के लिये अपनी आकृति को स्त्रीत्व आकर्षण प्रदान करना महत्त्वपूर्ण होता है।“
इसी प्रकार से किशारों एवं किशोरियों में मानसिक क्षमताओं का भी पूर्ण विकास हो जाता है। उनमें बुद्धि की स्थिरता, कल्पना शक्ति का बाहल्य, तर्क शक्ति की प्रचुरता, विचार में परिपक्वता और विरोधी मानसिक दशाएँ आदि मानसिक विशेषताओं का विकास हो जाता है।
शारीरिक एवं मानसिक विकास के कारण उनके संवेगात्मक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। इस आयु के किशोर एवं किशोरियाँ भावात्मक एवं रागात्मक जीवन व्यतीत करते हैं। वे अपने निश्चय के समक्ष सामाजिक मान्यताओं की भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि उनका मन और तक उद्वेगात्मक शक्ति से परिपूर्ण रहता है।